जसिंता केरकेट्टा की कविताएं rising tribal voices कि तरह सभी
आदिवासी साथीयो को प्रेरित करती है ! उनकी कुछ कविताए ......
साथियो!
आदिवासी आज भी
झाड़-झंकड़ साफ कर पूर्वजों की तरह
सर छुपाने को बना रहे मिट्टी के घर
खा रहे हैं जो कंद मूल और फल फूल
हर रोज चल-चलकर पैरों से खुद
पहाड़ों पर बना रहे पगडंडियां
ऐसे गुमनाम गांव जिसने कभी देखा नहीं।
युवा पत्रकार जसिंता केरकेट्टा ऐसे ही गाँव से आती हैं. ज़ाहिर है उनकी कविताएं उनके जीवनानुभव का अक्स हैं. ताज़गी है, नदी-झरनों सी, तो पहाड़ों सा अटल विश्वास भी. शिल्प का अनगढ़पन उन कंटीले मार्ग का प्रतीक है, जहां से उनका काव्य-प्रकाश रास्ता बनाता हुआ आगे बढ़ता है. बिना इनकी ज़मीन और ज़िन्दगी को जाने और भोगे आप आदिवासियों पर लाख कागद कारे करें, प्रमाणिकता क़तई नहीं होगी। जसिंता की रचनाएं उस संसार से हमारा परिचय कराती हैं, जिन्हें हम सिर्फ़ फ़िल्मों से जाना चाहते हैं. या ग़ैर-आदिवासी लिक्खाड़ों की इनाम याफ़ता पोथियों से. जबकि वहां अपने ढंग से कही गयी बातें होती हैं। आदिवासी घर-गाँव की कवयित्री की कविताएँ एक ईमानदार इंसान की ईमानदार वक्तव्य की तरह पढ़ी जानी चाहिए। आपकी हौसला अफ़ज़ाई रचनाकार का मान बढ़ाएगी।
ज़रूर पढ़ें रास्ता बनाती हुई रोशनी
साथियो!
आदिवासी आज भी
झाड़-झंकड़ साफ कर पूर्वजों की तरह
सर छुपाने को बना रहे मिट्टी के घर
खा रहे हैं जो कंद मूल और फल फूल
हर रोज चल-चलकर पैरों से खुद
पहाड़ों पर बना रहे पगडंडियां
ऐसे गुमनाम गांव जिसने कभी देखा नहीं।
युवा पत्रकार जसिंता केरकेट्टा ऐसे ही गाँव से आती हैं. ज़ाहिर है उनकी कविताएं उनके जीवनानुभव का अक्स हैं. ताज़गी है, नदी-झरनों सी, तो पहाड़ों सा अटल विश्वास भी. शिल्प का अनगढ़पन उन कंटीले मार्ग का प्रतीक है, जहां से उनका काव्य-प्रकाश रास्ता बनाता हुआ आगे बढ़ता है. बिना इनकी ज़मीन और ज़िन्दगी को जाने और भोगे आप आदिवासियों पर लाख कागद कारे करें, प्रमाणिकता क़तई नहीं होगी। जसिंता की रचनाएं उस संसार से हमारा परिचय कराती हैं, जिन्हें हम सिर्फ़ फ़िल्मों से जाना चाहते हैं. या ग़ैर-आदिवासी लिक्खाड़ों की इनाम याफ़ता पोथियों से. जबकि वहां अपने ढंग से कही गयी बातें होती हैं। आदिवासी घर-गाँव की कवयित्री की कविताएँ एक ईमानदार इंसान की ईमानदार वक्तव्य की तरह पढ़ी जानी चाहिए। आपकी हौसला अफ़ज़ाई रचनाकार का मान बढ़ाएगी।
ज़रूर पढ़ें रास्ता बनाती हुई रोशनी
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नदी और लाल पानी
------------------------
कोका-कोला बनाकर
तुमने उसे ''ठंडा का मतलब'' बताया
तो अब दुनियां को भी बताओ
सारंडा के नदी-नालों में बहते
लाल पानी का मतलब क्या है?
नदी के तट पर चुंआ बनाकर, पानी
छानते-छानते थक चुकी जुंबईबुरू की
सुकुरमुनी को तुम क्या समझाओगे?
कौन सी उपमा देकर
नदी के इस लाल पानी की ओट में
अपने गुनाहों के रंग छुपाओगे,
पीकर जिसे मौत को गले लगा रही सोमारी
उसकी लाल आंखें सवाल पूछती है तुमसे
कादो से सना लाल पानी
उतार देने को उसके हलक में
और कितने साल की लीज तुमने ले रखी है?
वो लोग भी कहां चले गए, जो कल तक
खूब करते थे लाल पानी की राजनीति
कितनी सशक्त थी वो रणनीति कि
आज तक रंग पीकर बह रही नदी
सवाल पूछ रही है उस शक्स से भी
जो सारंडा के विकास का दावा ठोक रहे,
देवियों की नग्न कलाकृति देखकर हुसैन को
तुम देश निकाले की सजा सुनाना चाहते थे
तो इंसानों की जिंदगी विकृत कर देने वाली
ऐसी हरकतों के लिए क्या दे सकोगे
सारंडा निकाले की सजा?
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गुमनाम गांव
आदिकाल का वक्त समयचक्र पर चढ़कर
मानो लुक-छुप कर गिरती किरणों के सहारे
फिसल कर उतर आया है देखो
सारंडा के बिहड़ जंगलों के अंदर, तभी
इस काल में आदिवासी आज भी
झाड़-झंकड़ साफ कर पूर्वजों की तरह
सर छुपाने को बना रहे मिट्टी के घर
कोड़ कर पथरीली जमीनें बना रहे खेत
खा रहे हैं जो कंद मूल और फल फूल
हर रोज चल-चलकर पैरों से खुद
पहाड़ों पर बना रहे पगडंडियां
ऐसे गुमनाम गांव जिसने कभी देखी नहीं
जंगल के बाहर की दुनियां
सांसे जो चलती हैं अंधेरे में चुपचाप
छोड़ती हैं देह का साथ
अनजानी बीमारियों के हाथों कत्ल होकर
देखती है साथ छूटे उन देहों को
बहती हुई लाश बनकर लाल नदी में
इससे बेखबर
उसी सारंडा के जंगलों में घूमती -फिरती
आती है सरकार सिर्फ चंद चिंहित गांवों में
रास्ता बनाती हुई सोलर लैंप की रोशनी में
और खनिजों के होने के सही निशान
ढूंढ निकालती है बड़ी आसानी से जाने कैसे
पर इन्हीं जंगलों में नहीं खोज पाती
उन गुमनाम कई गांवों का पता ।।
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::नदी और लाल पानी
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कोका-कोला बनाकर
तुमने उसे ''ठंडा का मतलब'' बताया
तो अब दुनियां को भी बताओ
सारंडा के नदी-नालों में बहते
लाल पानी का मतलब क्या है?
नदी के तट पर चुंआ बनाकर, पानी
छानते-छानते थक चुकी जुंबईबुरू की
सुकुरमुनी को तुम क्या समझाओगे?
कौन सी उपमा देकर
नदी के इस लाल पानी की ओट में
अपने गुनाहों के रंग छुपाओगे,
पीकर जिसे मौत को गले लगा रही सोमारी
उसकी लाल आंखें सवाल पूछती है तुमसे
कादो से सना लाल पानी
उतार देने को उसके हलक में
और कितने साल की लीज तुमने ले रखी है?
वो लोग भी कहां चले गए, जो कल तक
खूब करते थे लाल पानी की राजनीति
कितनी सशक्त थी वो रणनीति कि
आज तक रंग पीकर बह रही नदी
सवाल पूछ रही है उस शक्स से भी
जो सारंडा के विकास का दावा ठोक रहे,
देवियों की नग्न कलाकृति देखकर हुसैन को
तुम देश निकाले की सजा सुनाना चाहते थे
तो इंसानों की जिंदगी विकृत कर देने वाली
ऐसी हरकतों के लिए क्या दे सकोगे
सारंडा निकाले की सजा?
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गुमनाम गांव
आदिकाल का वक्त समयचक्र पर चढ़कर
मानो लुक-छुप कर गिरती किरणों के सहारे
फिसल कर उतर आया है देखो
सारंडा के बिहड़ जंगलों के अंदर, तभी
इस काल में आदिवासी आज भी
झाड़-झंकड़ साफ कर पूर्वजों की तरह
सर छुपाने को बना रहे मिट्टी के घर
कोड़ कर पथरीली जमीनें बना रहे खेत
खा रहे हैं जो कंद मूल और फल फूल
हर रोज चल-चलकर पैरों से खुद
पहाड़ों पर बना रहे पगडंडियां
ऐसे गुमनाम गांव जिसने कभी देखी नहीं
जंगल के बाहर की दुनियां
सांसे जो चलती हैं अंधेरे में चुपचाप
छोड़ती हैं देह का साथ
अनजानी बीमारियों के हाथों कत्ल होकर
देखती है साथ छूटे उन देहों को
बहती हुई लाश बनकर लाल नदी में
इससे बेखबर
उसी सारंडा के जंगलों में घूमती -फिरती
आती है सरकार सिर्फ चंद चिंहित गांवों में
रास्ता बनाती हुई सोलर लैंप की रोशनी में
और खनिजों के होने के सही निशान
ढूंढ निकालती है बड़ी आसानी से जाने कैसे
पर इन्हीं जंगलों में नहीं खोज पाती
उन गुमनाम कई गांवों का पता ।।
प्रकृति और स्त्री
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सदियों से तुम डरते रहे प्रकृति से
सोचकर, वो है सृजन के साथ विनाश की भी देवी
तुम उसे कभी समझ नहीं पाए, जैसे
कभी समझ नहीं पाए तुम स्त्री को भी
औजार और सत्ता हाथ में आते ही
पहले किया प्रकृति को तबाह
करने को उन पर एकक्षत्र राज
कभी न सुनी स्त्री की भी आह
सृजनशाीलता की जादुई डिबिया में बंद
कैद रह गयी हमेशा उनकी आवाज,
तुमने स्थापित किया देवियों को
घर से बाहर, बनाकर मंदिर
तुम्हारी बनायी विकसित दुनिया में
ताकि, हमेशा के लिए उन मंदिरों में
पुरातन सभ्यता की देवियां, रह जाएं बंदी,
‘मातृसत्तात्मकता’ के शब्द जाल में कैद
ये देवियां हर साल अलग-अलग नामों से
तुम्हारे ही हाथों से लेती हैं आकार
तुम्हीं उतारते हो उनकी आरती
फिर करते हो
अपने ही हाथों उनका अंतिम संस्कार,
तुमने धरती को खोद डाला
उसके गर्भ से निकालने को
आर्थिक वर्चस्व के लिए संपदा अपार
पीढि़यों पर करने को अपना अधिकार
तुमने अनसुनी कर दी स्त्री की चित्कार
फिर आज कौन सी ताकत तुम्हें
खींच लाती है इन देवियों के दर
वो है सिर्फ और सिर्फ
प्रकृति और स्त्री से तुम्हारा डर।।
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(रचनाकार परिचय:
जन्म: झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के एक छोटे से गांव खुदपोस के बांधटोली में. पिता के बिहार पुलिस में होने के कारण बचपन बिहार और संथाल परगना में बीता।
शिक्षा: गोड्डा के ख्रीस्त राजा स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई। मास कम्युनिकेशन में ग्रेजुएशन संत जेवियर्स काॅलेज रांची से ।
सृजन: स्कूल के दौरान रांची से निकलने वाली पत्रिका राही में कहानी व कविता का प्रकाशन। इसके अलावा ढेरों पत्र-पत्रिकाओं में रिपोर्ट, लेख, कविताएँ
सम्मान: छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ का 2014 में प्रेरणा सम्मान
संप्रति: प्रभात खबर, दैनिक जागरण, गुलेल डॉट कॉम, डीएनए डॉट कॉम के लिए रिपोर्टिंग करने के बाद वर्तमान में तहलका सहित अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता।
संपर्क: jcntkerketta7@gmail.com )
जन्म: झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के एक छोटे से गांव खुदपोस के बांधटोली में. पिता के बिहार पुलिस में होने के कारण बचपन बिहार और संथाल परगना में बीता।
शिक्षा: गोड्डा के ख्रीस्त राजा स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई। मास कम्युनिकेशन में ग्रेजुएशन संत जेवियर्स काॅलेज रांची से ।
सृजन: स्कूल के दौरान रांची से निकलने वाली पत्रिका राही में कहानी व कविता का प्रकाशन। इसके अलावा ढेरों पत्र-पत्रिकाओं में रिपोर्ट, लेख, कविताएँ
सम्मान: छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ का 2014 में प्रेरणा सम्मान
संप्रति: प्रभात खबर, दैनिक जागरण, गुलेल डॉट कॉम, डीएनए डॉट कॉम के लिए रिपोर्टिंग करने के बाद वर्तमान में तहलका सहित अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता।
संपर्क: jcntkerketta7@gmail.com )
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