उरांव आदिवासी वीरांगना सिनगी दई

उरांव आदिवासी वीरांगना सिनगी दई

छोटानागपुर क्षेत्र में स्थित रोहतासगढ़ में बसने से पूर्व उरांव जाति का इतिहास विस्मृति के धुंधलके में छिपा हुआ है और आधिकारिक तौर पर इससे पहले इनका जिक्र इतिहास के पन्नों तक में से गायब है. वैसे उरांव जाति को भारतवर्ष में रहने वाली प्रचीनतम आदिम जाति द्रविड़ जाति का ही एक अंग और अंश माना जाता है. यह बात इस तथ्य की ओर भी इंगित करती है कि उन की बोलचाल भाषा संस्कृति भी छोटानागपुर में बसने वाली अन्य आदिम जातियों जैसे मुंडा हो खड़िया संथाल आदि अन्य जातियों से काफी भिन्न है. इनकी भाषा दक्षिण भारत में बसे हुए द्रविड़ परिवारों से काफी मिलती जुलती है.

सिंधु घाटी में ईसा पूर्व कई सहस्त्राब्दियों से बसे
द्रविड़ों को पश्चिम से आए आर्य आक्रमणकारियों के
लगातार हमलों से अपनी जान बचाकर भागना पड़ा. उनके पुर्वजों की भूमि विश्व की प्राचीनतम नगरीय सभ्यताओं में एक विकसित समृद्धशाली सभ्यता के रूप मे विख्यात थी.

आर्य आक्रमणकारियों के आगमन के बाद उनके द्वारा मचाए जाने वाली लूटपाट कत्लेआम और आगजनी जैसी घटनाओं के हाहाकार से त्रस्त और आतंकित और साथ ही अपने प्रियजनों की निर्मम हत्याओं से शोकाकुल द्रविड़ लोगों के साथ साथ उरांवों ने भी भाग कर जंगलों में शरण ली.
कालांतर में मैदानी भागों में आर्यों के बढ़ते हुए दबाव के
कारण अपनी जगह से खदेड़े जाने का दर्द अपने मन में समेटे उनमें से कुछ लोग दक्षिण दिशा में आगे बढ़ते हुए विंध्याचल पर्वत माला पार करके दक्षिण भारत की ओर निकल गए और वहां जा कर बस गए. कुछ लोग उत्तर दिशा में निकल गए और कश्मीर हिमाचल उत्तराखंड की तराईयों से होते हुए नेपाल तक जा पहुंचे और वहां से गंगा नदी के उत्तरी दिशा में स्थित आधुनिक बिहार के पूर्वी हिस्से यानी पूर्णिया जिले तक जा पहुचे. ऐसे वक्त में जिन्हें जो जगह अपने अनुकूल लगी वे वहीं पर ठहरकर बसते चले गए. समय बीतने के साथ साथ वे लोग स्थानीय संस्कृति में रच बस गए.
उन्हीं में से एक दल जंगलों में छिपते फिरते पूर्व दिशा की ओर गंगा नदी के दक्षिण दिशा में स्थित आधुनिक बिहार के दक्षिण पश्चिम दिशा के घने जंगलो के बीचोबीच बसे रोहतासगढ़ क्षेत्र में जा पहुंचे जिस की सीमा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले से सटी हुई है. जब उरांव लोगों ने रोहतासगढ़ क्षेत्र में कदम रखा होगा तो उस जगह की खूबियों ने उनका मन मोह लिया होगा और उन सबकी किसी सुरक्षित स्थान की तलाश उस जगह को देखकर ही खत्म हो गई होगी.

वह जगह प्राकृतिक रूप से इतनी दुर्गम जगह पर स्थित
थी कि आसानी से उस जगह पर पहुंचा नहीं जा सकता था. वो जगह तीन ओर से भयावह बीहड़ वनों से घिरी हुई थी और चौथी दिशा में काफी कठिन और दुरूह चढ़ाई थी और नीच सोन नदी बहती थी. ऊपर में स्थित पठारी मैदान में उपजाऊ भूमि प्रचुर रूप में मौजूद थी. शायद इन सब कारणों की वजह से ही हमारे पूर्वजों को वो जगह बसने के लिए श्रेयस्कर प्रतीत हुई होगी. जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने एकमत होकर वहीं बसने का निर्णय लिया होगा और इसी वजह से वे लोग
कई सहस्त्राब्दियों तक दुनिया की यहां तक कि इतिहास
की नजरों से भी ओझल रहे. यह करीब तेरहवीं या चौदहवीं सदी की बात है जब तुर्क दिल्ली के सल्तनत पर अपना कब्जा जमा चुके थे और उनकी फ़ौजें देश के विभिन्न क्षेत्रों पर अपनी जीत का परचम फ़हराती जब रोहतासगढ़ के इलाको से गुजर रही होगी तो उन्हें इस बात का कभी गुमान तक ना होगा कि उनकी जीत का सिलसिला कुछ देर के लिए थमने वाला है. और उनकी हार की वजह कोई लड़ाकू योद्धा दल न होकर वीरांगनाओ का दल होगा.
जब तुर्क की फ़ौज रोहतासगढ़ के इलाकों से गुजर रही थी तब
उन्हें मुखबिरों की जुबानी यह बात पता चली कि घने
जगलों के बीचोबीच स्थित दुर्गम पहाड़ों पर कोई
जंगली कबीले के किला बना हुआ है जहां पर वे लोग
काफी सालों से राज कर रहे है. और उन के बारे में ये बात
भी काफी प्रचलित थी कि वे लोग काफी समृद्धशाली एंव
वैभवपूर्ण जिंदगी व्यतीत करते थे और पहाड़ के नीचे बसे आस
पास के गांवों से आम चीजों की खरीद फ़रोख्त तक के लिए
भी बेशकीमती पत्थरों का प्रयोग करते थे.
बेशकीमती धनदौलत की कहानियों ने फ़ौज के वहां पर
हमला करने के उनके मंसू्बों की आंच कुछ और
सुलगा दी थी त्ताकि उन पर भी वे लोग अपना आधिपत्य
जमा सके.
इस प्रकार काफी सारी जानकारियों से लैस होकर फ़ौज ने
उस वक्त उन पर हमला करने का निर्णय किया जब वे लोग
सरहुल त्यौहार मनाने में व्यस्त होंगे जो कि उन
दिनों महीनो भर चलता रहता था. उन्हें
बताया गया था कि कुछ दिनों में उनका कोई त्यौहार आने
वाला था जिसमें वहां रहने वाले सभी लोग चाहे वे
स्त्री हो या पुरूष उस हर्षोल्लास के त्यौहार के अवसर
को पारपंरिक ढंग से मनाते थे. रात दिन लोग संगीत और नृत्य
के आयोजनों मे डूबे रहते थे जिस के शोर से आस पास
का वातावरण गुंजायमान गुलजार और झंकृत रहता था. उस
दौरान लोग खास तौर पर तैयार किए गए चावल से बनने
वाली हड़िया नामक मादक पेय का जमकर सेवन करते थे
जिसका असर किसी आम मदिरा या शराब से कम
नहीं होता था. सो अगर ऐसे समय पर उनपर हमला बोल
दिया जाए तो उन्हें आसानी से हराया जा सकता है. और
इस मामले में उनकी जानकारी काफी सटीक थी कि सरहुल
के त्यौहार के अवसर पर वहां मौजूद ज्यादातर पुरूष
हड़िया पीकर धुत्त हो चुके थे और फ़ौज से लड़ने या उस से
लोहा लेने की हालत मे नहीं रह गए थे.
जब फ़ौज ने उन पर हमला बोला होगा तो वो अपने मंसूबों में
शायद कामयाब भी हो जाती जैसे कि वो रास्ते में पड़ने
वाले बाकी सभी जगहों पर होती आई थी. क्योंकि जिन
जगहों से अब तक फ़ौज गुजरती आई थी उन
मैदानी इलाकों के शासकों की मानसिकता ऐसे आदिम
समाजों से काफ़ी भिन्न थी. वहां रहने वाले छोटे छोटे
रियासतों के राजा रजवाड़े एक दूसरे से जलते रहते थे और एक
दूसरे के राज्यों को हड़पने के लिए साजिश और षडयंत्र
भी रचते रहते थे और इसी वजह से आपस में लड़ते भी रहते थे.
यहां तक कि कई बार तो वे लोग आपसी फूट के चलते
बाहरी आक्रमणकारियों को खुद न्यौता देते थे कि वे आकर
उन्हें अपने दुश्मनों से लड़ने में मदद करे. दूसरा पक्ष अपनी जान
और अपना राज्य बचाने की खातिर उनसे शर्मनाक
संधियों के लिए भी तैयार हो जाता था. राजा और उन के
सेना के युद्ध में मारे जाने या बंदी बनाए जाने की सूरत में
उनकी स्त्रियां अपनी इज्जत बचाने के लिए अग्निकुंड में कूद
कर जौहर कर लेती थी.
पर रोहतासगढ़ में बसा आदिम समाज बराबरी पर आधारित
एक समतावादी समाज था जिसमें बिना भेद भाव के
स्त्री और पुरूष को सदियों से बराबरी का दर्जा हासिल
था इसलिए स्त्रियां भी सभी कामों में बढ़ चढ़ कर
हिस्सा लेती थी और पुरूषों की तरह युद्ध कौशल में
भी पूरी तरह से पारंगत थी. इसलिए फ़ौज के आने की खबर
सुनकर वहां मौजूद लगभग सभी पुरूषों को नशे में धुत्त पाकर
और दुश्मन से मुकाबला करने में उन्हें पूरी तरह से असमर्थ देखकर
भी वहां की स्त्रियों ने अपना धैर्य नहीं खोया बल्कि ठंडे
दिमाग से उनसे डट कर सामना करने के लिए रणनीति बनाने
लगी जिनका उन्हें पर्याप्त ज्ञान और अभ्यास भी था.
ऐसा इसलिए था क्योंकि बचपन से ही लड़कों और
लड़कियों को बाकी सभी चीजों की तरह
युद्धकला का प्रशिक्षण भी दिया जाता था ताकि वक्त
पड़ने पर हर कोई अपने समाज की रक्षा करने के लिए युद्ध लड़
सके.
इसलिए स्त्रियों का जवाबी कार्यावाही के लिए तैयार
होना भले ही आज हमें किसी अपवाद से कम नहीं लगे पर उस
वक्त वो उस समाज के लिए बेहद
मामूली बल्कि रोजमर्रा की बात थी. सो खतरा भांपकर
उन्होंने आपस में सलाह करके तुर्क के घुड़सवार फ़ौज जो पहाड़
के नीचे बहने वाली नदी को पार करके पहाड़
की सीधी खड़ी चढ़ाई की कच्ची पगडडियों पर अपने घोड़े
सरपट दौड़ाते हुए ऊपर की ओर आ रही थी उन से निबटने के
लिए व मोर्चा संभालने के लिए सिनगी दई नामक स्त्री के
नेतृत्व में आपस में मिलकर कई रक्षा पंक्तियां तैयार की. कुछ
स्त्रियां अपने अपने दल के नेता के नेतृत्व में पहाड़ के ऊपर
पत्थरों के बने परकोटे के पीछे मोर्चा संभालकर ऊपर की ओर
आती फ़ौज पर बड़े बड़े पत्थरों की वर्षा करने लगी. तो कुछ
स्त्रियां पुरूषों का भेस धरकर तीर धनुष भाले बरछा सरीखे
अपने पारंपरिक अस्त्र और शस्त्र लेकर परकोटे के बीचोबीच
बने मुख्य दरवाजे से निकलकर टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियो से नीचे
उतरने लगी और वापस भागती फ़ौज पर आगे बढ़कर
तीरों की वर्षा करने लगी.
पहाड़ से नीचे उतरती हुई सेना को देखकर तुर्क की फ़ौज
अवश्य ही अचंभे में पड़ गई होगी क्योंकि वे तो नशे में गाफ़िल
लोगों पर हमला करने गए थे और उन्हें तो किसी प्रकार के
प्रतिरोध की आशंका बिल्कुल भी नहीं थी. उन्हें तो सपने में
भी यह ख्याल नहीं आया होगा कि वे लोग पुरूषों का भेस
धरे स्त्रियों से मात खाकर अपनी जान बचा कर वापस भाग
रहे थे. वे अपने मुखबिरों और गुप्तचरों की गलतबयानी पर
बौखलाए और झुंझलाए भी होंगे पर सामने से आने
वाली फ़ौज से बिना लड़े या मुकाबला किए अगर वो लौट
जाते तो संभवत आज भी उरांव जाति शायद
दुनिया की नजरों से ओझल रोहतासगढ़ में ही रह
रही होती और शायद उरांव इतिहास में वो निर्णायक
घड़ी नही घटती जिसने एक ही पल में पूरी उरांव
जाति का इतिहास उलट पुलट करके रख दिया.
तुर्क की फ़ौज को उस वक्त ऐसा जरूर ही महसूस हुआ
होगा कि उन के साथ विश्वासघात हुआ है पर उस पर
अफ़सोस करने के लिए भी उन के पास समय
नहीं था क्योंकि विरोधी सेना ने तब तक उन पर हमला शुरू
भी कर दिया था. इस अत्प्रत्याशित हमले से उनके पैर उखड़
गए थे. ऊपर से होती लगातार पत्थरों और तीरों की बरसात
से फ़ौज में खलबली सी मच गई थी और वो तितर बितर
सी होने लगी थी. इस की वजह से वे लोग वापस मुड़ कर नीचे
उतरने के लिए विवश कर दिए गए थे. यही नहीं ऊपर से उतरने
वाली सेना ने तीन बार फ़ौज को पहाड़ से नीचे खदेड़ कर
सोन नदी के पार भगा दिया था.
लौटते वक्त लड़ाई और दुश्मन को खदेड़ भगाने की वजह से हुई
थकान को मिटाने के लिए वो स्त्रियां नदी में उतरकर अपने
चेहरों को धोने लगी. कहा जाता है कि चेहरा धोने के लिए
अपनी आदतनुसार उन्होंने अपने दोनों हाथों का प्रयोग
किया हालांकि पुरूषोचित्त पोशाक पहने होने की वजह से
उनका ऐसा करना उनकी बहुत बड़ी भूल साबित हुई. जिसने
बाद में उन्हें रोहतासगढ़ को हमेशा के लिए छोड़ देने के लिए
विवश कर दिया. पर दुश्मन को मार भगाने में
मिली सफ़लता ने उन्हें असावधान बना दिया था और वे
ऐसी गलती कर बैठी जो उनके लिए अंतत
काफ़ी मंहगी साबित हुई. क्योंकि यही एक बात दूर से उन
लोगों में स्त्री और पुरूष के बीच के फ़र्क को उजागर कर
सकती थी.
सेना को अपने बल पर नदी पार खदेड़ देने की बात को लेकर
उल्लास में डूबी स्त्रियों ने नदी में चेहरा आदि धोते वक्त
शायद उतनी सावधानी नहीं बरती जितनी कि उन
हालातों में करनी चाहिए थी. वरना अगर उन्हें इस बात
का जरा सा भी अंदेशा होता कि दुश्मन फ़ौज के लोग
उनकी निगरानी कर रहे होंगे तो वे हर्गिज असावधान
नहीं होती. उस के बाद में वे पहाड़ चढ़कर वापस लौट आई. पर
तब तक तो काफ़ी देर हो चुकी थी. किसी कहारिन ने
नदी के दूसरे छोर से उनकी ये हरकत देख ली थी. और वो इस
बात को बखूबी भांप गई थी कि पुरूषों के भेस में स्त्रियों ने
ही तुर्कों की फ़ौज के छक्के छुड़ा दिए थे.
ऐसा प्रतीत होता है कि उस कहारिन ने नदी में हुई घटना के
रहस्य को भुनाना चाहा होगा क्योंकि वो शायद इस बात
का फ़ायदा उठाना चाहती थी. बस फिर क्या था उस
घटना को देखने के बाद वो सीधे तुर्कों के खेमे में जा पहुंची.
हार के सदमे से तिलमिलाई फ़ौज के सेनापति से मिलने
की ख्वाहिश जाहिर करने की बात सुनकर उसे शायद
काफ़ी फ़टकार भी सुननी पड़ी होगी. पर वह अपनी जिद
पर अड़ी रही होगी तो उसकी जिद से परेशान हो कर
सेनापति भी उस की बात सुनने के लिए तैयार
हो गया होगा. उसने इसे भी किस्मत का इशारा समझ
लिया होगा तभी तो वो उस स्त्री से मिलने के लिए तैयार
हो गया जो उसके लिए काफ़ी अच्छा फ़ैसला साबित हुआ.
कहारिन ने सेनापति के ईनाम देने की पेशकश करने पर
उनकी लगातार हार के रहस्य पर से पर्दा उठाते हुए नदी पर हुई
घटना का जिक्र किया और उस भेद के बारे में उसे
बताया जिसे वहां के स्थानीय लोगों के अलावा और कोई
नहीं जानता था. उसने बताया कि फ़ौज
तो वहां की स्त्रियों से मात खाकर वापस लौटी है.
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. वहां पर पुरूष तो अभी भी नशे
में ही धुत्त मिलेंगे क्योंकि इन दिनों उन के कोई त्यौहार चल
रहे है इसलिए उन पर हमला करने में जरा भी देर
नहीं करनी चाहिए. अगर फ़ौज ये मौका चूक जाती है
तो अगली बार उन लोगों को हरा पाना काफ़ी मुश्किल
होगा. इसलिए अगर फ़ौज दुबारा उन पर
हमला करेगी तो अवश्य ही जीतेगी. सेनापति ने अपने वादे
के मुताबिक कहारिन को ईनाम देकर रूखसत किया और
दुबारा हमला करने की रणनीति बनाने लगा.
फ़ौज भी उस रहस्य से वाकिफ़ होते ही नए जोश से भर गई
और अपनी हार की खीज मिटाने के लिए जल्द
ही दुबारा कूच करने के लिए त्तैयार हो गई. जब
स्त्रियों को फ़ौज के दुबारा हमला करने की खबर
मिली तो वे खतरा भांप गई कि इस बार तो उनसे जीत
पाना बहुत मुश्किल होगा. सो उन्होंने भविष्य में तुर्क फ़ौज
द्वारा मचाए जाने वाले कत्लेआम जैसी विकट
परिस्थिति से निबटने के लिए अपने पुरखों की जगह
को हमेशा के लिए छोड़ देने का निर्णय लिया. शाम के डूबते
ही वे रात के अंधेरे में नशें मे धुत्त आदमियों को जैसे तैसे
संभालती और वहां मौजूद सभी बच्चों बूढ़ों और
स्त्रियों को लेकर घने जंगलो में खो गई. जल्दबाजी में शायद
वे जरूरत का थोड़ा बहुत सामान ही अपने साथ ले पाई
होगी पर वे अपने बेशकीमती खजाने को अपने साथ ले
जाना नहीं भूली. पर वे वहां पर ज्यादा देर रूकने के खतरे से
अच्छी तरह वाकिफ़ थी इस लिए उन्होंने ज्यादा देर वहां पर
ठहरना उचित नहीं समझा. बुजुर्गों पुरनियों की जबानी उन
सभी लोगो ने अपने पूर्वजों की कहानी सुन रखी थी कि वे
भी तो सुदूर अतीत में किसी दूर देश में बहुत समय से बसे हुए थे.
पर वहां पर बाहरी लोगों द्वारा की गई लूटपाट
आगजनी और कत्लेआम से जान बचाकर बचते बचाते इस जगह में
आकर बस गए थे.
पूर्वजों के पलायन की गाथा उनके लिए इससे पहले कभी महज
किस्सा कहानी ही रहा हो पर इस वक्त उसकी भयावह
तस्वीरें उन के दिलोदिमाग में रह रह कर कौंध
रही थी जो कि उन का हश्र भी हो सकता था अगर वे
वहीं पर टिके रहने की मूर्खता करते. उन्होंने ये समझ
लिया था कि अपने पुरखों की तरह अगर
अपनी जाति को संहार होने से बचाना है तो उन्हें वो जगह
जल्द से जल्द खाली कर देनी चाहिए. जब तुर्कों ने किले में
हमला किया होगा तो वे लोग यह देख कर हैरान रह गए होंगे
जब सन्नाटे ने उन का स्वागत किया होगा. एकाएक तो उन
को अपनी आंखों पर भी यकीन
नहीं आया होगा कि आखिर उन लोगों को जमीन निगल
गई या आसमान हजम कर गया. इधर उधर बिखरे
सामानों को देख कर ऐसा लग रहा था कि वे लोग
काफी जल्दबाजी में वहां से निकले थे. पर थोड़ी खोजबीन
के बाद उन का खुशी का ठिकाना नहीं रहा होगा जब उन
लोगों द्वारा छूट गए बेशकीमती पत्थर इधर उधर पड़े मिले
होंगे. और तब वे हाथ मलने के अलावा कुछ भी न कर पाए होंगे.
पर शायद उन्हें भी वो जगह काफ़ी भा गई थी क्योंकि बाद
में उन्होंने वहां पर घेराबंदी करके किले बनवाए जिसके टूटे फ़ूटे
खंडहर अभी भी देखे जा सकते हैं.
जब उरांव लोग रोहतासगढ़ के इलाके से निकले तो उन में से
लोग कई दलों में बंटकर जंगलों और पहाड़ों को पार करके
दक्षिण दिशा में पहुचे और जिस जगह पर जाकर बसे उसे
वर्तमान समय में सरगुजा जिले के नाम से जाना जाता है.
कुछ उस से भी आगे निकल गए और जिस जगह पर बसे उसे
आजकल जसपुर जिले के नाम से पुकारा जाता है. ये
दोनों इलाके छ्त्तीसगढ़ जिले के अंतर्गत आते है. कुछ लोग
भागते भागते उनसे भी आगे निकल गए और उड़ीसा राज्य में
स्थित राजगंगपुर और सुंदरगढ़ जिले तक जा पहुंचे. पर ज्यादातर
उरांव लोग जो पूर्व दिशा में निकले वे जंगल पहाड़ पार करते
हुए गढ़वा होते हुए पलामू के जंगलो को पार करके
पिठुरिया में स्थित जिस जगह पर पहुंचे उसे सुतियांबे के नाम
से जानते हैं जहां तक मुंडा जाति राज करती थी. उरांव
लोगों ने उनके पास जाकर शरण मांगी जिसके लिए वहां के
राजा ने अपनी कुछ शर्तों के बदले इजाजत दे दी.
पिठुरिया से सिमडेगा तक के पश्चिमी हिस्से में उन्हें बसने
की इजाजत दी गई जो कि घने जंगलो से आच्छादित था.
उस जगह को उरांव जाति के लोगों ने कड़ी परिश्रम कर के
रहने लायक बनाया और पत्थरीली धरती को हरियाली से
भरपूर लहलहाते फसलों से परिपूर्ण खेतों मे परिवर्तित कर
दिया.
आज भी सिनगी दई के नेतृत्व में रोहतासगढ़ के हमले में तीन
बार अपनी जीत को दर्शाने के लिए कई उरांव
स्त्रियां अपने माथे में तीन खड़ी लकीर
का गोदना गुदवाती है. उस के अदम्य साह्स और अदभुत सूझ
बूझ के किस्से आज भी उरांव समाज में प्रचलित है जिसने
अपनी जान पर खेलकर स्त्रियों का दल बना कर तुर्की फ़ौज
का सामना किया जिन्होंने सरहुल के पर्व के दौरान
रोहतासगढ़ पर हमला बोल दिया था और
अपनी जाति की रक्षा की. आज भी काफ़ी गर्व के साथ
उसे राजकुमारी सिनगी दई के रूप मे याद किया जाता है
जिसने हमलावरों के हाथों अपनी जाति को संहार होने से
बचाया. आज भी उसी विजय के यादगार के तौर पर
स्त्रियां बारह साल मे एक बार पुरूषों का भेस धरकर तीर
धनुष तलवार और कुलहाड़ी आदि लेकर सरहुल त्यौहार के
दौरान जानवरों के शिकार के लिए निकलती है जिसे
जनी शिकार या मुक्का सेन्द्रा के नाम से
पुकारा जाता है.
विश्व के ज्ञात इतिहास में ऐसे उदाहरण देखने को विरले
ही मिलेंगे जहां पर स्त्रियों ने अपने बल बूते पर
हमलावरों का डटकर मुकाबला किया और साथ
ही अपनी जाति को संहार होने से पहले उन्हें सुरक्षित
बचाकर निकाल लिया. सिनगी दई के अदम्य साह्स और
अदभुत सूझ बूझ के किस्से आज भी उरांव समाज में प्रचलित है
जिसने अपनी जान पर खेलकर स्त्रियों का दल बना कर
तुर्की फ़ौज का सामना किया जिन्होंने सरहुल के पर्व के
दौरान रोहतासगढ़ पर हमला बोल दिया था और उनसे
अपनी जाति की रक्षा की.
आज भी काफ़ी गर्व के साथ उसे राजकुमारी सिनगी दई के
रूप में याद किया जाता है जिसने हमलावरों के
हाथों अपनी जाति को संहार होने से बचाया. वर्ना आज
उरांव जाति का नाम दुनिया के इतिहास से कब का मिट
गया होता जो कि कई सहस्त्राब्दियों तक
दुनिया की यहां तक कि इतिहास की नजरों से भी ओझल
रहे थे. यह सब उन स्त्रियों की बदौलत संभव हुआ जिन्होंने उस
कठिन घड़ी में भी अपनी जान की परवाह किए बगैर
दुश्मनों को नाकों चने चबवा दिए और अपने
लोगों की रक्षा की. जिनका जिक्र इतिहास के पन्नों में
बेशक न मिले पर उनकी बहादुरी और शौर्य के किस्से आज
भी हमारे समाज के लोकमानस में गाथाओं
मिथकों जनश्रुतियों एव किंवंदतियो के रूप में सुरक्षित और
संरक्षित है.
मेरा यह मानना है कि समस्त उरांव समाज को उन
स्त्रियों का सदैव आभारी एंव कृतज्ञ होना चाहिए
जिन्होंने अपनी जाति को बचाकर हम सभी को यह अवसर
प्रदान किया कि हम सभी लोग समय और इतिहास के
पन्नों पर अपनी जाति की उपस्थिति को दर्ज करा सकें
और दुनिया के विशाल रंगमंच पर
अपनी अपनी भूमिका निभा सकें. हमें अपने आने
वाली पीढ़ियों को भी यही सिखाना चाहिए कि वे
चाहे सफ़लता के कितने ही सोपान क्यों न तय कर लें पर
अपनी जिन्दगी में मिली तमाम उपलब्धियों के लिए
भी हमेशा उन्हीं स्त्रियों के ऋणी होना चाहिए.

-संकलित


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