आदिवासी शब्द एक पहचान को चिन्हित करता है और वह पहचान उनकी अस्मिता से जुड़ी हुई है। उत्तर-औपनिवेषिक समय भारतीय समाज, राजनीति और साहित्य में उत्पीडि़त अस्मिताओं के मुक्तिकामी संघर्षों का समय है। भारत में बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक में नए सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक आन्दोलनों का उभार देखने को मिलता है। स्त्रियों, दलितों, किसानों, वंचितों और आदिवासियों की एकजुटता ने अनेक ऐसे सवाल व मुद्दों को जन्म दिया जो आसानी से समझे और सुलझाए नहीं जा सकते थे। अपनी अस्मिता, शोषण व भेदभाव के बरक्स इन समूहों ने एक जुट होकर एक आन्दोलन चलाया जिसे अस्मितावादी आन्दोलन कहा जा सकता है। स्त्री व दलित विमर्ष इसी एकजुटता के परिणामस्वरूप साहित्य जगत में फलीभूत होते हैं। समाज तथा राजनीति के अलावा साहित्य ने भी इसकी निर्मिति में अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है। ततपश्चात आदिवासी साहित्य भी अपनी संवेदना व अस्मिता मूलक भाव-बोध के साथ साहित्य संसार में जोरदार उपस्थिति दर्ज कराता है।
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए आदिवासी जन-समुदायों में एक ऐसा विमर्श सामने आया है जिसमें उसकी पहचान, जल, जंगल, जमीन आदि मुख्य कारक हैं। इसी के परिणामस्वरूप उनके वाचिक परम्परा में प्राप्त ’हाषिए का साहित्य‘ में प्रतिरोध का स्वर है जो लोक की भावना से प्रेरित है। आज भी विकास के नाम पर विस्थापन का दंश झेल रहे आदिवासियों में मुक्ति की आकांक्षा, समाज और संस्कृति में अपनी पहचान बनाने की ललक सर्वाधिक है। आदिवासी कविता में स्त्री अस्मिता अनेक रूपों में अपने होने का बोध कराती रहती है। एक स्त्री अपनी पहचान के लिए किस तरह छटपटा रही है, आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल की कविता ’तुम कहाँ हो माया‘ में देखा जा सकता है-
“दिल्ली के किस कोने में हो तुम?
मयूर विहार, पंजाबी बाग या शाहदरा में?
कनाट प्लेस की किसी दुकान में
सेल्सगर्ल हो या/किसी हर्बल कंपनी में पैकर?
कहाँ हो तुम माया? कहाँ हो?
कहीं हो भी सही सलामत या
दिल्ली निगल गयी तुम्हें?”1
आदिवासी कविता में पुरुषों के बरक्स स्त्रियों ने भी अपनी सार्थक भागीदारी सिद्ध की है। अपने जीवन के दुःख-दर्द,घुटन-पीड़ा,त्रासदी, दोयम दर्जे का समझा जाना,आदि अनेक समस्याओं को अपनी लेखनी में उतारा है साथ ही वर्तमान समय की गहरी पड़ताल की है। आदिवासी कविता स्त्री अस्मिता के उन तमाम प्रश्न पर बहस चाहती है जो अभी भी अनसुलझे व असंगत हैं। अपने अनुभव के संसार को विस्तृत करती हुई आदिवासी स्त्रियाँ शिक्षा के क्षेत्र में तो अभी कुछ पीछे हैं किन्तु उनमें चेतना जगी है जिससे सामाजिक विसंगति बोध उनकी गणना में आ चुका है। पर्यावरण की सुरक्षा, जल, जंगल, जमीन को बचाने का उनका संकल्प देखते ही बनता है। उनकी कलम अब चेता रही है उन्हें जो उनका शोषण कर रहे हैं। ग्रेस कुजूर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को गैर जरुरी बताती हुई उसके दुष्परिणाम से अवगत करातीं हैं-
“यह प्रकृति
एक दिन
मांगेगी
अपनी तरुणाई का एक-एक क्षण
और करेगी/भयंकर बगावत।” 2
ग्रेस कुजूर ने अपनी पहचान के संघर्ष को अपने स्वाभिमान से जोड़कर अस्मिता संघर्ष और मूल्यों का पर्याय बना दिया है। आज आदिवासी साहित्य लोक तक ही सीमित नहीं है बल्कि उससे काफी आगे निकल गया है और समकालीन साहित्य का अभिन्न हिस्सा बन गया है। उसके साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा है।
स्त्री अस्मिता के कई ऐसे अनछुए पहलुओं पर सार्थक टिप्पणी करती हुई चंद्रकांत देवताले की कविता ’बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ‘ जनमानस के समक्ष प्रस्तुत होती है जो संवेदना के स्तर पर चिंतन के लिए विवष कर देती है कि हमारे समाज में आर्थिक स्तर पर कितनी विषमता व्याप्त है। जो सम्पन्न वर्ग है जैसे महाजन, साहूकार व अन्य मौकापरस्त लोग वे आदिवासियों पर गिद्ध दृष्टि रखते हुए उनका शोषण करते हैं-
“उम्रदराज सेठ साहूकार
बनिया बक्काल
आँखों से तोलते-भाँपते ककडि़याँ बंडी की जेबों से खनकाते रेजगी
ककडि़यों को नहीं पर लड़कियों को मुग्ध कर देगी
रेजगी की खनक आवाज।”3
पूँजीवादी समाज के साऊण्ड प्रूफ दीवारों में स्त्रियों की चीत्कारों को आदिवासी कविता बाहर लाती है और ’’किसी भी कीमत पर‘‘ जैसे जुमलों पर प्रहार करती है। इस सन्दर्भ में पाब्लो नेरूदा की यह कविता एक नये विचार सारणियों पर प्रकाष डालती है-
’क्या सारी शान्ति कबूतर के ही हिस्से हैं?
युद्ध की ठान तेंदुआ ही, बस्स, ठानता है?
बेजान चीजों का भूगोल ही
अध्यापक विद्यार्थियों को क्यों पढ़ाता है?
स्कूल से ऊबी-थकी अबाबीलों पर
क्या कुछ गुजरती है, भला कभी सोचा है?
सच है कि वे नक्षे फैलाएँ और
तुम उनके पार सारा आकाष देखलोगे।।‘
(पाब्लो नेरूदा स्पेनिष कवि, अबाबीलो-एक चिडि़या की प्रजाति)
स्त्री का यौन शोषण मात्र इसी आधार पर नहीं होता कि औरत औरत है। यह इसलिए संभव हो सका है कि उसकी सामाजिक हैसियत घर बाहर सर्वत्र दूसरे दर्जे के नागरिक की है और इस सामाजिक हैसियत का ताल्लुक उसके आर्थिक शोषण से है। औरत के श्रम को कम आंकने की भूल हमारा पुरुष समाज सदैव करता आया है उन्हें उनकी उचित हिस्सेदारी दिलाने की बात कात्यायनी करती हैं।
’’औरत का श्रम सारी दुनिया में मर्द के श्रम से सस्ता है। पूरी दुनिया के कुल श्रम का 2/3 भाग औरते करती हैं जबकि उन्हें कुल मजदूरी का मात्र 1/3 भाग ही मिलता है।‘‘4
महिलाएं आदिवासी समाज के रीढ़ की हड्डी होती हैं वे पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं हैं, बल्कि उनसे भी अधिक साहस का काम कर दिखाती हैं। आदिवासी कविता इन साहसी महिलाओं की धीरता, उनके ऊपर होने वाले अत्याचारों और उनकी वास्तविक जिंदगी का सजीव वर्णन भी किया है। एक ऐसी ही साहसी विषम परिस्थितियों में भी हौंसला बनाये रखने वाली महिला के बारे में तेजराम शर्मा लिखते हैं-
“बीहड़ जंगल के मध्य
उस आदिवासी महिला ने
चुने दो-चार खेत
दो-चार पशु …..
हेमंत की रातों में
घर के आस-पास
ताजा बर्फ पर हिम चिह्नों के बीच
चुना चूल्हे के ताप को।”5
स्त्री चिंतन व आदिवासी विमर्ष पर लेखन करने वाली समाज सुधारक लेखिका रमणिका गुप्ता स्त्री अस्मिता को पर्यावरण के माध्यम से समझने की मुहिम पर बल देती हैं-
“ओ देवदार तुम्हारे पत्ते
जब भर देते हैं अँधेरे में गंध
सरसराने लगती है ध्वनि तो
सुर में सुर मिलाकर
सारा का सारा जंगल लगता है गाने
दूर-दूर तक पसर जाता है राह का सन्नाटा
डरने लगता है मन
क्या तुम्हें याद आता है
सदियों से पहले का दुर्दम दमन?”6
आदिवासी स्त्री का संघर्ष सीधे तौर पर पुरुष वर्ग या वर्चस्ववादी सत्ता से नहीं है जैसा कि आम स्त्री विमर्ष की लड़ाई पुरुष सत्ता के खिलाफ ही है। किन्तु आदिवासी स्त्री अपने कुनबे में स्वतंत्र तथा स्वयं का निर्णय लेती है। चारदीवारी से मुक्त है। उसका संघर्ष पूँजीपति व सामन्त वर्ग से है जिन्होंने उसे उसकी जमीन से अलग किया है और उसकी अस्मिता को खो रहे हैं।
आदिवासी कविता का मुख्य स्वर मुक्ति व विद्रोह का है। वह हर समय अपना विरोध दर्ज कराती है। पुरुष व स्त्री दोनों की समस्या आदिवासी समाज में लगभग समान है। यहाँ अनुज लुगुन, मंजुल ज्योत्सना तथा रोज केरकट्टा की कविता में फर्क करना काफी मुश्किल है। यदि यह न बताया जाय कि यह किसकी कविता है तो पंक्ति पढ़कर अनुमान लगाना काफी कठिन होगा जैसे-
‘‘ओ मेरी युद्धरत दोस्त
तुम कभी हारना मत
हम लड़ते हुए मारे जायेंगे
उन जंगली पगडंडियों में
उन चैराहों में
उन घाटों में
जहाँ जीवन सबसे अधिक संभव होगा।”7 (अनुज लुगुन)
“आऊँगा अगले वर्ष
कहा था बेटे ने
बार-बार कहने के बावजूद
पिछले कई वर्षों से आया नहीं था
शिकायत है उसे अब अपने गाँव में
पलाशके फूल नहीं रहे
सरई के वन नहीं रहे।”8 (मंजुल ज्योत्सना)
“डर को बुनो मत न बांटो
डर रहा हो जहाँ छील दो
जड़ से उखाड़ो
आग में झोंक दो
पास डर को न फटकने दो।”9 (रोज केरकट्टा)
दरअसल स्त्रियों का शोषण प्रत्येक समाज में होता आया है,कहीं उन्हें दैवीय गुणों से युक्त मानकर शोषित किया गया है तो कहीं सदाचारणी के रूप में किन्तु आदिवासी समाजों में स्त्रियों की दशाकितनी दारुण है। उन्हें अपनी पहचान तक से वंचित कर दिया गया है। वह कभी आदिवासी पहचान के साथ जीती हैं तो कभी ईसाई हो जाती हैं तो कभी पंजाबी और कभी फिर आदिवासी, इस पूरे भटकाव मं जिंदगी कब उनके हाथ से निकल जाती है, कुछ पता ही नहीं चल पाता है। इसके साथ ही वे अपनी आस्मिता के लिए संघर्षरत् रहती हैं।
‘‘अगर वे चाहते हैं कि अपनी थोड़ी सी भलाई के लिए
हम उनकी हजार बुराइयों पर पर्दा डालें।
एहसान मानें उनका…… जी हुजूरी करें। हाँ में हाँ मिलाए सिर्फ
बिछ जाएं जब-तब उनके इषारे पर उनकी खातिर।
तो नहीं चाहिए हमें उनका एहसास। उठा ले जाएं वे अपनी व्यवस्था
ऐसा विकास नहीं चाहिए हमें। नहीं चाहिए ऐसा बदलाब। नही चाहिए।”10
जिस समाज की भाषा जितनी समृद्ध होगी वह समाज उतना ही प्रगतिशील व विकासमान होगा। भाषा से ही व्यक्ति और समाज की अपनी एक अलग पहचान होती है। आदिवासियों की भाषा बहुत ही सारगर्भित व समृद्ध, गैर आदिवासी समाज को उनकी भाषा से फायदा हो या न हो, किन्तु आदिवासी समाज अपनी समस्त कार्य प्रणाली, क्रिया व्यापार उन्हीं में करता है। भाषाई अस्मिता के सवाल पर मेघालय के कवि डेज्मंड खारमाफ्लांड अँग्रेजी के वर्चस्व से चिंतित होकर स्वयं की आलोचना करते हैं।
“मेरे अँग्रेजी ज्ञान का बोध
डसता है मुझे -सवाल करता है
ये ज्ञान जो बन गया है मकबरा
बघारता है षेखी
करता है निरंतर अट्टहास।‘‘11
चूॅकि वह अपने ही लोगों की भीड़ को अपनी कविता नहीं सुना पाता न ही लूट पाता है उनकी वाह-वाही क्योंकि उनके लोग अंग्रेजी नहीं जानते इसलिए कवि शर्मिदा है। रामा जनजाति का कवि निताई रामा अपनी जनजाति को सावधान करता है कि वे अपनी ही भाषा बोलें, दूसरों की भाषा में नकल करने के बजाय स्वयं की भाषा में अभिव्यक्ति ठीक प्रकार से होती है। कवि भाषाई मुद्दे पर जनता को जागरूक बनाने की मुहिम छेड़ता है।
“हमारी जबान भी कम नहीं किसी कदर
मिठास में
फिर क्यों करें हम दूसरों की नकल।”12
स्वतंत्रता के पष्चात् योजनाबद्ध विकास से आर्थिक क्षेत्र में विशेषकर ऊर्जा, खनिज सिंचाई, भारी उद्योग तथा आधारभूत विकास कार्यों में प्रगति तो हुई लेकिन इस प्रगति के लिए उन आदिवासियों को भारी कीमत चुकानी पड़ी जिन्हें इच्छा बगैर अपनी रोजी-रोटी और जमीन से बेदखल होना पड़ा।
‘‘अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग, भारत सरकार की छठी रिपोर्टबताया गया है कि देशके विभिन्न राज्यों में 17 परियोजनाओं के कारण 43338 आदिवासी परिवार अपनी जमीन से बेदखल किये जा चुके है।’’13
औद्योगिक पूँजीवाद की जरूरत का एक प्रतिफल यह निकला कि वन विभाग ने उन जंगलों को ’रिजर्व’ घोषित कर दिया जिन्हें आदिवासी आदिकाल से अपना घर समझते आ रहे थे। आदिवासी जंगल बदर होने लगे, मातृभूमि से काट दिये जाने लगे। जीवन के इस गहरी पीेड़ा का जवाब देते हुए विश्वविख्यात चिंतक ‘एडवर्ड सईद ने एक बार कहा था-‘‘मेरी मातृभूमि से काट दिया जाना ही मेरे जीवन की सबसे गहरी पीड़ा है। जमीन का एक टुकड़ा महज भौगोलिक इकाई ही नहीं होता वरन् इतिहास संस्कृति परम्परा और विरासत का केन्द्र होता है। सत्ता में बैठे लोगों के लिए जमीन भले ही सिर्फ आर्थिक मामला होता है लेकिन इसका असल मर्म इसमें जन्मने वाले किसान आदिवासियो से पूछिए, जिनमें इनकी नाभि गड़ी होती है, गड़ी होती है पुरखों की हड्डियाँ।’’14
समकालीन कविता में असाधारण संतुलन के कवि मंगलेष डबराल अपनी कविता आदिवासी में दिकू समाज द्वारा उन्हें मनुष्य न समझे जाने पर गहरी चिंता व्यक्त करते हैं। मनुष्यता किस स्तर पर क्षीण हो चुकी है कि समाज आज कई स्तरों में बंट चुका है। सर्वहारा पर किसी की दृष्टि क्यों नहीं जाती है? उनकी समस्याओं को मुखरता से अभिव्यक्ति क्यों नहीं मिलती है? एक अखबारी रिपोर्ट का जिक्र करते हुए उस पर सकारात्मक मुहिम पर बल देते हैं-
‘‘अखबारी रिपोर्ट बतलाती हैं कि जो लोग उस पर शासन करते हैं देशके 636 में से 230 जिलों में उनका उससे मनुष्यों जैसा कोई सरोकार नहीं रह गया है उन्हें सिर्फ उसके पैरों तले की जमीन में दबी हुई सोने की एक नई चिडि़या दिखायी देती है।’’15
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आदिवासी समाज की दषा एवं दिष की सम्यक स्थिति पर विचार किया जाय तो हमारा आदिवासी समाज स्त्री अस्मिता के संकट से जूझता नजर आ रहा है। स्त्री अस्मिता पर सामयिक संकट के लिए भूमण्डलीकरण की भ्रामक नीति एवं नियति अधिकाधिक जिम्मेदार है, जो न तो उन्हें प्रकृति के स्वच्छ सुरम्य एवं स्वच्छंद गोद में नाचने गाने दे रहा है और न ही जल, जंगल जमीन पर उनके वास्तविक अधिकार की स्वीकारोक्ति देता है। आदिवासी कविता में आदिवासी स्त्री के आदिम मूल्यों का इतिहास बोध, प्राकृतिक संपदाओं के संरक्षण की चिंता अपने अस्तित्व, अस्मिता को लेकर सजगता आदि को देखा-पढ़ा जा सकता है। आदिवासी कविता स्त्री अस्मिता की खोज एवं शोषण के विविध रूपों से उद्घटित और उनके खिलाफ हो रहे अन्याय के प्रतिरोध का साहित्य है। आदिवासी स्त्री संवेदना पीडि़त और स्वतंत्रता की तलाशमें व्याकुल है। भले ही भारतीय संविधान में जनजातीय महिलाओं को प्रचुर स्थान मिला है किन्तु उनकी स्थिति विकसित समाज से भिन्न है। आदिवासी स्त्रियाँ जिस जंगल पहाड या दुर्गम प्रदेशमें रहती हैं वे वहां की मालकिन हैं लेकिन आज विकास के नाम पर विस्थापन एवं शोषण की जिंदगी जीने को अभिषप्त हैं। आदिवासी कविता स्त्री अस्मिता की रक्षा तथा समाज में उनकी भागीदारी को सुनिश्चितकरने पर बल देती है।
धीरेन्द्र सिंह
शोधार्थी हिन्दी विभाग
डाॅ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.)
0 comments :
Post a Comment